नई दिल्ली – स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पौने दो घंटे का भाषण लंबा अवश्य था, लेकिन उसका निचोड़ भारत की तेजी से बदल रही डेमोग्राफी पर गहरी चिंता जताना रहा। प्रधानमंत्री ने संकेत दिया कि यदि समय रहते इस पर कड़ाई से रोक नहीं लगाई गई, तो आने वाले 120 वर्षों में भारत की वे विशेषताएं और सांस्कृतिक निधियाँ समाप्त हो जाएंगी, जिनकी वजह से भारत “भारत” कहलाता है।
प्रधानमंत्री का स्पष्ट संदेश था कि महज़ नाम बचा रहना भी असंभव हो सकता है, यदि डेमोग्राफिक असंतुलन पर समय रहते ध्यान न दिया गया। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि देश की राजनीति का एक बड़ा वर्ग इस समस्या की गंभीरता को समझे बिना, वोट बैंक की राजनीति में उलझा हुआ है।
2 करोड़ बांग्लादेशी और रोहिंग्या का मुद्दा
प्रधानमंत्री के बयान की पृष्ठभूमि में उन लगभग 2 करोड़ बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों का मुद्दा भी है, जिनके आधार कार्ड और अन्य पहचान पत्रों के सहारे वे देशभर में फैल चुके हैं। विश्लेषकों का मानना है कि यही वह वोट बैंक है, जिसके चलते विपक्षी दल राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC/SIR) का विरोध कर रहे हैं।
भाषण की दो खास बातें
भाषण की लंबाई और कई बार दोहराए गए विषयों को लेकर आलोचनाएं भी हुईं, लेकिन इसमें दो अहम बिंदु रहे:
1. 12 वर्षों में पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक मंच से आरएसएस से अपने संबंध स्वीकार किए।
2. डेमोग्राफिक बदलाव जैसे संवेदनशील विषय पर गंभीरता से चर्चा की।
यह संदेश सीधा था—बीजेपी और आरएसएस के रिश्ते छिपाने योग्य नहीं हैं, और डेमोग्राफिक संतुलन पर चर्चा टालना अब संभव नहीं।
राजनीतिक माहौल और वोट चोरी का विवाद
प्रधानमंत्री के भाषण के ठीक बाद विपक्षी राजनीति ने नया मोड़ लिया। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने संयुक्त रूप से वाराणसी सीट पर प्रधानमंत्री मोदी की जीत को “चुनावी धांधली” करार देते हुए अजय राय को “वास्तविक विजेता” घोषित कर दिया। यह दावा उस माहौल को और गर्माता है जिसमें राजनीतिक विरोध अब व्यक्तिगत घृणा का रूप लेने लगा है।
राष्ट्रीय चेतावनी और अटलजी की याद
प्रधानमंत्री का यह भाषण अतीत की उन ऐतिहासिक चेतावनियों से जुड़ता है, जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था—
“लोग आएंगे जाएंगे, सरकारें बनेंगी बिगड़ेंगी, लेकिन देश रहना चाहिए।”
विश्लेषकों का मानना है कि मोदी का “डेमोग्राफी” पर जोर इसी चिंता का विस्तार है कि यदि वोट बैंक की राजनीति और राष्ट्रीय असंतुलन की उपेक्षा जारी रही, तो 120 वर्षों बाद भारत को पहचानना कठिन हो जाएगा।
भाषण ने स्पष्ट कर दिया कि प्रधानमंत्री का ध्यान अल्पकालिक राजनीति पर नहीं बल्कि भारत के दीर्घकालिक अस्तित्व और पहचान पर केंद्रित है। सवाल यह है कि क्या राजनीतिक दल अपनी-अपनी रणनीतियों से ऊपर उठकर इस चुनौती को स्वीकार करेंगे, या फिर वोट बैंक की राजनीति आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बड़े संकट का कारण बनेगी।o