बिहार में विधानसभा चुनावों की आहट तेज है और इसी के साथ राज्य की सबसे चर्चित राजनीतिक विरासत — लालू परिवार — में जारी खामोशी और बिखराव की राजनीति भी चर्चा के केंद्र में है।
जहां एक ओर लालू प्रसाद यादव के दो पुत्रों — तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव — के बीच संबंधों में खटास की खबरें बार-बार सुर्खियों में आती रही हैं, वहीं दूसरी ओर एक सच्चाई यह भी है कि तेज प्रताप यादव आज तक न तो अपने पिता के खिलाफ कुछ बोले हैं, न ही तेजस्वी यादव के विरुद्ध कभी सार्वजनिक तौर पर नाराजगी जताई है।
यादव वोटों में ‘भ्रम’ फैलाने की रणनीति?
तेज प्रताप यादव को राष्ट्रीय जनता दल (राजद) से कुछ महीने पहले 6 वर्षों के लिए निष्कासित किया गया था। इसके पीछे प्रेम प्रसंग, मीडिया बयानबाजी और संगठन विरोधी गतिविधियों को कारण बताया गया। निष्कासन का निर्णय उनके पिता लालू प्रसाद यादव और छोटे भाई तेजस्वी यादव की सहमति से हुआ — लेकिन तेज प्रताप यादव की प्रतिक्रिया अप्रत्याशित रूप से शांतिपूर्ण और सम्मानजनक रही।
इससे पहले भी जब उन्होंने बार-बार अपनी अलग पार्टी या संगठन बनाने की बात की — चाहे वह “लॉर्ड कृष्णा सेना” हो या “छात्र जनशक्ति परिषद” — तो उससे ना तो कोई चुनावी जमीन बनी, न ही संगठनात्मक ढांचा खड़ा हुआ।
यानी बात हुई, पोस्टर लगे, बयान आए, पर अंत में हर बार तेज प्रताप ने लालू-तेजस्वी के नाम और तस्वीरों को नहीं हटाया।
महुआ से निर्दलीय! फिर भी संघर्ष तेजस्वी से नहीं?
अब तेज प्रताप यादव ने घोषणा की है कि वे महुआ विधानसभा सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे। यह वही सीट है जहां से उन्होंने 2015 में बतौर राजद विधायक चुनाव जीता था।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि जब वह अब राजद में नहीं हैं, निर्दलीय हैं, तो फिर तेजस्वी यादव या लालू यादव के खिलाफ क्यों नहीं बोलते? क्या यह एक राजनीतिक दोहरेपन (dual game) की बानगी है?
क्या है असली चाल?
बिहार की राजनीति में यह कयास तेज़ हैं कि तेज प्रताप यादव की ‘बगावती’ छवि दरअसल एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हो सकती है।
हो सकता है कि राजद नेतृत्व (यानी तेजस्वी यादव) ही उन्हें एक स्वतंत्र चेहरे की तरह प्रोजेक्ट करवा रहा हो ताकि यादव समुदाय के असंतुष्ट वोटों को भी किसी और दल की ओर जाने से पहले “तेज प्रताप” के नाम पर साधा जा सके।
यानी, एक तरह से तेज प्रताप यादव राजद के लिए एक ‘अनौपचारिक संकटमोचक’ या ‘बैकअप नेता’ की भूमिका में दिखाई दे रहे हैं — जो खुद को भले पार्टी से बाहर दिखाएं, लेकिन अंततः विरोधी न बनें।
चुनावी समय से पहले समर्थन?
इन सबके बीच अगर चुनाव से ठीक पहले तेज प्रताप यादव तेजस्वी यादव के समर्थन में खुलकर आ जाएं, तो यह भाजपा और जदयू जैसी पार्टियों के लिए बड़ा झटका हो सकता है।
ऐसे में पूरा “तेज प्रताप बनाम तेजस्वी” नाटक सिर्फ एक राजनीतिक भ्रमजाल बनकर रह जाएगा, और यादव वोटों में विभाजन की आशंका ध्वस्त हो जाएगी।
निष्कर्ष: यह चुप्पी सिर्फ परिपक्वता नहीं, रणनीति भी हो सकती है
तेज प्रताप यादव की शांत और सम्मानजनक भूमिका इस समय बहुत कुछ कह रही है।
न वे विद्रोही दिख रहे हैं
न किसी विरोधी पार्टी में जा रहे हैं
न लालू-तेजस्वी को गाली दे रहे हैं
और न ही अपने संगठनों को गंभीर रूप से खड़ा कर पा रहे हैं
ऐसे में सवाल लाजिमी है —
क्या वे आज भी राजद की ही अंदरूनी रणनीति का हिस्सा हैं?
क्या यादव वोटों को भ्रमित करने और संगठित बनाए रखने की यह चाल है?
आने वाले चुनाव ही बताएंगे कि तेज प्रताप यादव सच में विद्रोही हैं, या सिर्फ एक राजनीतिक मोहरा, जो पर्दे के पीछे से राजद की ही स्क्रिप्ट पर खेल रहे हैं।