देश की राजनीति एक असामान्य मोड़ पर खड़ी है। एक तरफ अमेरिकी व्यापारिक दबाव लगातार बढ़ रहा है—डिजिटल व्यापार नियमों से लेकर कृषि आयात और रक्षा सहयोग की शर्तों तक—तो दूसरी ओर, देश का विपक्ष अचानक सड़कों पर तेज़ और आक्रामक आंदोलन के साथ उतर आया है।
विशेषज्ञों का मानना है कि इन दो समानांतर घटनाओं का समय-एक होना महज़ संयोग नहीं, बल्कि किसी बड़े राजनीतिक परिदृश्य की तैयारी का संकेत हो सकता है।
सोमवार का अभूतपूर्व मार्च
इसी संदर्भ में सोमवार को नई दिल्ली में विपक्षी दलों ने अपनी ताकत का बड़ा प्रदर्शन किया। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, एनसीपी प्रमुख शरद पवार और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव के नेतृत्व में लोकसभा और राज्यसभा के लगभग 300 सांसदों ने संसद से मुख्य चुनाव आयोग कार्यालय तक मार्च निकाला।
विपक्ष का आरोप था कि केंद्र सरकार और चुनाव आयोग मिलकर “वोट चोरी” कर रहे हैं। लेकिन संसद मार्ग पर ही पुलिस ने बेरीकेट लगाकर मार्च को रोक दिया और सभी नेताओं को हिरासत में ले लिया। कुछ देर बाद उन्हें छोड़ दिया गया।
सत्ता पक्ष की कड़ी प्रतिक्रिया
इस प्रदर्शन पर केंद्रीय मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता धर्मेंद्र प्रधान ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा—
> “देश का विपक्ष लोकतांत्रिक संस्थाओं को बदनाम करके अस्थिरता पैदा करने की रणनीति पर काम कर रहा है। वे बड़ी विदेशी ताकतों की भाषा बोल रहे हैं, जो भारत का लोकतंत्र खत्म करना चाहती हैं। ऐसे आंदोलन देश के संवैधानिक ढांचे को कमजोर करने की विदेशी साजिश का हिस्सा हैं। लेकिन भारत का लोकतंत्र मजबूत है और जनता विपक्षी मंसूबों को भांप रही है।”
इन मामलों में यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि आज तक विपक्षी दल भारतीय संवैधानिक प्रक्रिया पर भी भरोसा रखता था। और अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए वह न्यायालय का भी सहारा लेता था। और विपक्ष जो वोट चोरी का आरोप- प्रत्यारोप केंद्र सरकार और भारतीय चुनाव आयोग पर लगा रहा है। वह मामला भी सुप्रीम कोर्ट मे विचाराधीन है।
इसके साथ देश का कोई भी विपक्षी दल वोट चोरी का पुख्ता सबूत लेकर चुनाव आयोग में नहीं पहुंचा है। और ना ही कोई शिकायत दर्ज की है। ऐसे ही में विपक्ष द्वारा यह सब विरोध प्रदर्शन महज प्रोपगंडा फैलाना लग रहा है। जिसमें बिना कोई आधार के चुनाव आयोग और केंद्र सरकार पर वोट चोरी का आरोप लगाकर हुड़दंग करना विपक्ष किसी साजिश के तहत यह सब कर रहा है यह सीधा प्रतीत होता है।
‘बांग्लादेशमॉडल’ का संदर्भ
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, ‘बांग्लादेश मॉडल’ उस स्थिति को दर्शाता है, जब बाहरी शक्तियां किसी देश की आंतरिक अस्थिरता का फायदा उठाकर सत्ता परिवर्तन की जमीन तैयार करती हैं। 1971 से लेकर हाल के वर्षों तक बांग्लादेश में यह पैटर्न दिखा है—भीतर से उबलता जनाक्रोश और बाहर से बढ़ता राजनयिक-आर्थिक दबाव, मिलकर राजनीतिक समीकरण बदल देते हैं।
भारत में समानताएं क्यों देखी जा रही हैं?
पिछले कुछ महीनों में भारत-अमेरिका संबंधों में कई मुद्दों पर तल्खी बढ़ी है—
डिजिटल व्यापार: डेटा स्टोरेज और ट्रांसफर पर मतभेद।
कृषि आयात: अमेरिकी उत्पादों पर शुल्क और आयात प्रतिबंध।
रक्षा सहयोग: तकनीकी ट्रांसफर और अनुबंध शर्तों पर असहमति।
इसी समय, घरेलू स्तर पर मूल्यवृद्धि, बेरोजगारी, और संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर विपक्ष ने कोर्ट की बजाय सड़क पर उतरकर सीधा जनदबाव बनाने की रणनीति अपनाई है।
संभावित निहितार्थ
अगर यह घटनाक्रम सिर्फ आंतरिक राजनीतिक असंतोष का नतीजा है, तो यह संसद के आगामी सत्र और 2025 के विधानसभा चुनावों में और तेज़ होगा।
लेकिन अगर इसमें अंतरराष्ट्रीय प्रभाव मौजूद है, तो आने वाले महीनों में भारत को न सिर्फ घरेलू राजनीतिक टकराव, बल्कि राजनयिक स्तर पर भी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
फिलहाल, सरकार और विपक्ष दोनों ने ‘बांग्लादेश मॉडल’ की आशंका पर आधिकारिक टिप्पणी से दूरी बनाई हुई है। लेकिन सोमवार का यह प्रदर्शन और उसके बाद की राजनीतिक बयानबाज़ी ने इस बहस को नई ऊँचाई पर पहुंचा दिया है। संकेत साफ हैं—सियासी परिदृश्य में आने वाला अध्याय और भी टकरावपूर्ण हो सकता है।
