पटना, 6 जुलाई 2025
बिहार की सड़कों पर खुलेआम होती आपराधिक वारदातें, बेलगाम होती भीड़, और लाचार पुलिस — ये सब अब एक आम तस्वीर बन चुकी है। राज्य में कानून व्यवस्था का गिरता स्तर चिंता का विषय ही नहीं, बल्कि आम जनता की सुरक्षा पर सीधा हमला बन चुका है। सवाल यह है कि इस अराजक स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? सत्ता के गलियारे में बैठे राजनेता या फिर जमीन पर व्यवस्था को संभालने वाला प्रशासन?
बिहार में अपराधियों में कानून का खौफ नहीं। जिम्मेदार प्रशासन या राजनीतिक इच्छाशक्ति?
पुलिस व्यवस्था पर सवाल
बिहार में पुलिस व्यवस्था लगभग निष्क्रिय नजर आ रही है। कई जिलों में तो हालात ऐसे हैं कि पीड़ित थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने जाए तो पहले खुद को ‘संदिग्ध’ साबित न करना पड़े, इसकी गारंटी नहीं। पुलिस न तो घटनाओं की समय पर रोकथाम कर पा रही है और न ही पीड़ितों को न्याय दिला पा रही है। अपराधियों का मनोबल इतना बढ़ चुका है कि दिनदहाड़े हत्याएं, अपहरण और डकैती की घटनाएं आम हो गई हैं।
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प्रशासनिक चुप्पी और निष्क्रियता
राज्य प्रशासन की भूमिका भी कम संदिग्ध नहीं है। जिन अफसरों को जवाबदेह होना चाहिए, वे राजनीतिक दबाव में या तो चुप हैं या फिर अपनी निष्क्रियता को “कानूनी प्रक्रिया” की आड़ में छिपा रहे हैं। क्या यह स्वीकार्य है कि जनता सुरक्षा के लिए चीखती रहे और प्रशासन केवल फाइलें पलटता रहे?
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राजनेताओं की बयानबाजी बनाम ज़मीनी हकीकत
राजनेता मीडिया में बयान जरूर देते हैं — “कानून व्यवस्था पूरी तरह नियंत्रण में है”, “जिम्मेदारों पर कार्रवाई होगी”, “पुलिस को निर्देश दिए गए हैं” — लेकिन हकीकत इससे कोसों दूर है। यदि सब कुछ नियंत्रण में है तो फिर अपराध क्यों नहीं रुक रहे? ये बयान सिर्फ राजनीतिक मजबूरी हैं या जनता को गुमराह करने की एक सोची-समझी रणनीति?
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कौन ले जवाबदेही?
भारतीय लोकतंत्र की व्यवस्था में जवाबदेही की अंतिम जिम्मेदारी निर्वाचित प्रतिनिधियों की होती है। यदि पुलिस निष्क्रिय है तो गृह मंत्रालय (जो मुख्यमंत्री के पास ही है) क्या कर रहा है? यदि डीएम और एसपी चुप हैं तो उन्हें जवाबदेह ठहराने वाला कौन है?
समाधान क्या है?
1. पुलिस सुधार: बिहार में पुलिस तंत्र को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त कर प्रोफेशनल और आधुनिक बनाने की ज़रूरत है।
2. प्रशासनिक पारदर्शिता: हर जिले में अपराध और कार्रवाई का मासिक रिपोर्ट कार्ड सार्वजनिक किया जाए।
3. जनता की भागीदारी: मोहल्ला समितियों, लोक शिकायत निवारण मंचों और सोशल ऑडिट को मजबूत किया जाए।
4. राजनीतिक इच्छाशक्ति: कानून व्यवस्था को केवल चुनावी मुद्दा न बनाकर प्रशासनिक प्राथमिकता बनाया जाए।
बिहार की कानून व्यवस्था का गिरता ग्राफ केवल पुलिस या प्रशासन की लापरवाही का नतीजा नहीं है, यह एक साझा विफलता है — जिसमें राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, प्रशासनिक निष्क्रियता और जवाबदेही की अनुपस्थिति शामिल है। जब तक इन तीनों पहलुओं में सुधार नहीं होगा, तब तक बिहार की आम जनता यूं ही असुरक्षा के साए में जीने को मजबूर रहेगी।