Sunday, July 27, 2025
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बिहार चुनाव से पहले दलों में अंदरूनी उथल-पुथल: असंतुष्ट नेताओं की भगदड़ और नेतृत्व पर दबाव की राजनीति

पटना। आगामी बिहार विधानसभा चुनाव की आहट के साथ ही राज्य के तमाम प्रमुख राजनीतिक दलों में भीतरघात और असंतोष की लहरें तेज होती जा रही हैं। राजद, जदयू, भाजपा हो या कांग्रेस—लगभग हर दल के भीतर अब “टिकट की टेंशन” से उपजे अंतर्विरोध खुलकर सतह पर दिखने लगे हैं।

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बगावती सुरों की सियासी धुन

इस बार अधिकांश दलों में पुराने और संभावित उम्मीदवारों को यह आशंका है कि पार्टी नेतृत्व उनकी उम्मीदवारी काट सकता है या उनकी सीट पर किसी और को मौका मिल सकता है। नतीजा यह हो रहा है कि कई नेता पहले ही “सियासी चाल” चलने लगे हैं—कहीं पार्टी नेतृत्व पर संगीन आरोप लगाकर दबाव की रणनीति अपनाई जा रही है, तो कहीं सोशल मीडिया के ज़रिये सार्वजनिक नाराज़गी जताकर टिकट सुरक्षित करने की कोशिश की जा रही है।

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राजद की विभा देवी द्वारा तेजस्वी यादव के करीबी नेताओं पर “परिवार की छवि खराब करने” का आरोप इसी मनोदशा का हिस्सा माना जा रहा है। दूसरी ओर भाजपा के एक वरिष्ठ विधायक द्वारा दरभंगा में आमरण अनशन की घोषणा ने भी पार्टी नेतृत्व को असहज किया है।

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टिकट का ‘ट्रिगर प्वाइंट

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो यह चुनाव एक नई पीढ़ी बनाम पुरानी पीढ़ी की लड़ाई भी बनता जा रहा है। कई दलों में युवा चेहरों को प्राथमिकता देने की तैयारी चल रही है, जिससे वर्षों से काम कर रहे नेताओं में नाराजगी बढ़ रही है। ऐसे में पार्टी नेतृत्व पर दबाव डालने का एकमात्र हथियार बचता है—बगावती तेवर।

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कई नेता यह संदेश देना चाहते हैं कि यदि उन्हें टिकट नहीं मिला, तो वे या तो निर्दलीय मैदान में उतरेंगे या किसी अन्य दल में शामिल हो सकते हैं। यह सियासी भगदड़ न केवल पार्टी की साख को नुकसान पहुंचा रही है, बल्कि संगठनात्मक संतुलन भी बिगाड़ रही है।

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राजनीति के भीतर की राजनीति

यह सियासी असंतोष केवल टिकट की लड़ाई नहीं है, बल्कि नेतृत्व पर असंतोष और गुटबाजी की भी अभिव्यक्ति है। टिकट वितरण से पहले अपने राजनीतिक वजूद को सिद्ध करना और नेतृत्व के समक्ष “अनदेखा न किए जाने” का संदेश देना—आजकल नेताओं की रणनीति का अहम हिस्सा बन गया है।

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राजनीतिक विशेषज्ञ इसे एक प्रकार की “प्रेशर पॉलिटिक्स” कहते हैं, जहां विरोध के सुर दरअसल बातचीत की मेज़ तक पहुँचने की पहली सीढ़ी होते हैं।

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इन घटनाओं का प्रत्यक्ष प्रभाव चुनावी समीकरणों पर पड़ना तय है। नेतृत्व के लिए चुनौती यह है कि कैसे असंतुष्ट नेताओं को साधा जाए और कैसे ऐसे टिकट वितरण को अंजाम दिया जाए जिससे संगठन एकजुट बना रहे।

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सवाल यह भी है कि—

क्या ये असंतुष्ट नेता महज़ दबाव की रणनीति अपना रहे हैं या सचमुच चुनाव से पहले पार्टी बदलेंगे?

क्या पार्टी नेतृत्व इन दबावों के सामने झुकेगा या अपने तय रोडमैप पर ही आगे बढ़ेगा?

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बिहार की चुनावी राजनीति इस वक्त न केवल मैदान में लड़ी जा रही है, बल्कि दलों के अंदर भी ‘प्रतिष्ठा’ और ‘उम्मीदवारी’ की अदृश्य जंग जारी है। यह देखना दिलचस्प होगा कि चुनाव की तारीखें घोषित होते-होते यह बगावतें अपने अंजाम तक पहुँचती हैं या पार्टी नेतृत्व उन्हें चतुराई से साध लेता है।

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