पटना के तपते राजनीतिक अखाड़े में उस दिन थोड़ी धूल ज्यादा उड़ गई जब महागठबंधन के बिहार बंद में पूर्णिया के धाकड़ निर्दलीय सांसद पप्पू यादव को राहुल-तेजस्वी के ट्रक पर चढ़ने से “राजनीतिक चोट” लग गई। हालांकि शरीर पर हल्की धक्कामुक्की हुई, मगर आत्मा पर जो खरोंच आई, वह “विचारधारा” की पट्टी से ढँक दी गई।
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पप्पू यादव, जो जनता की आवाज़ भी हैं और राजनीति के गायक भी, बोले – “ये अपमान नहीं था, बस गठबंधन की सीटिंग कैपेसिटी कम थी।” वैसे भी, महागठबंधन का यह ट्रक “राजनीति एक्सप्रेस” है, इसमें चढ़ने से पहले टिकट नहीं, पर टिकट बंटवारे की चिंता ज़रूर होनी चाहिए।
“हम तो गठबंधन में हैं ही नहीं!” — सांसद जी ने फरमाया, मानो यह कह रहे हों कि शादी नहीं हुई लेकिन रिश्ता बहुत गहरा है। यही कारण है कि जब उन्हें चढ़ने नहीं दिया गया, तो उन्होंने इसे अपमान नहीं, “भावनात्मक मजबूरी” बता दिया।
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दरअसल, बात सीधी है — पप्पू यादव भले ही निर्दलीय हैं, लेकिन दिल से आज भी कांग्रेसी रंग में रँगे हैं। और कांग्रेस-राजद को भी पता है कि सीमांचल का यह खिलाड़ी भले ही खुलकर खेलता हो, लेकिन भाजपा विरोधी पिच पर रन वही बनाएगा।
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राजनीतिक गलियारों में खुसर-पुसर है कि “गलती से हुई फजीहत” का जल्द ही “मनमौन संवाद” से इलाज कर लिया गया है। आखिर चुनाव से पहले कोई नेता नाराज हो जाए, ये तो मानो रैली में माइक बंद होने जैसा है — सबको नुकसान।
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पप्पू यादव की मजबूरी भी समझिए — कांग्रेस के साथ न रहें तो पब्लिक सपोर्ट कट हो जाए, और कांग्रेस की मजबूरी भी कम नहीं — पप्पू यादव को दूर किया तो सीमांचल नेटवर्क डाउन हो जाए। ऐसे में चाहे ट्रक की छत पर जगह न मिले, लेकिन राजनीतिक दिलों में दरवाज़े खुले हैं।
राजनीति का यही गणित है:
गाड़ी से गिर सकते हैं, पर गठबंधन से नहीं।
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