Thursday, November 6, 2025
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बिहार बंद: विरोध और प्रशासन की भूमिका पर उठते सवाल

पटना, 4 सितंबर 2025 –

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मां के खिलाफ की गई अभद्र टिप्पणी के विरोध में सत्ताधारी दल जदयू–भाजपा गठबंधन द्वारा बुलाया गया बिहार बंद आज पूरे राज्य में सुर्खियों में रहा। यह बंद सफल रहा या असफल, यह अलग बहस का विषय है, लेकिन इस दौरान सामने आई घटनाओं ने सत्ता, प्रशासन और लोकतंत्र की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।

सड़क पर प्रदर्शन और नागरिकों से टकराव

पटना समेत कई जिलों में भाजपा कार्यकर्ताओं ने सड़कों पर उतरकर ज़बरदस्ती बंद को लागू करने की कोशिश की।

सबसे गंभीर घटनाओं में पटना में एंबुलेंस से डिलीवरी के लिए जा रही महिला को रोका जाना शामिल है। कार्यकर्ताओं द्वारा एंबुलेंस को कुछ देर रोकने का यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो चुका है, जिससे आमजन में नाराज़गी देखी जा रही है।

जहानाबाद में एक शिक्षिका को जबरन रोके जाने और दुर्व्यवहार किए जाने का वीडियो भी सामने आया है। इस घटना ने बंद के औचित्य पर और सवाल खड़े कर दिए हैं।

 प्रशासन की भूमिका पर सवाल

बंद के दौरान सबसे बड़ा सवाल स्थानीय प्रशासन की भूमिका पर खड़ा हुआ।

पटना समेत कई जिलों में पुलिस-प्रशासन ने सख़्ती दिखाने के बजाय मौन स्वीकृति जैसा रवैया अपनाया।

जगह-जगह कार्यकर्ताओं की ज़बरदस्ती और आम नागरिकों को परेशान करने के बावजूद पुलिस मूकदर्शक बनी रही।

यह रवैया साफ तौर पर संकेत देता है कि प्रशासन ने अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता पक्ष के इस बंद को समर्थन दिया।

 संवेदनशील मुद्दा बनाम जन असुविधा

प्रधानमंत्री की माता को गाली देना एक गंभीर और निंदनीय कृत्य है। आम जनता भी मानती है कि इस पर विरोध दर्ज होना चाहिए। लेकिन विरोध की अभिव्यक्ति के तरीके को लेकर सवाल उठना स्वाभाविक है।

अभद्र टिप्पणी की निंदा लोकतांत्रिक रूप से होनी चाहिए थी।

लेकिन नागरिकों को जबरन रोकना, एंबुलेंस और शिक्षकों जैसी ज़रूरी सेवाओं में बाधा डालना लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है।

इस तरह की घटनाएं सत्ता पक्ष की छवि को मजबूत करने के बजाय कमजोर कर सकती हैं।

1. सत्ता पक्ष का लाभ:

बंद ने पार्टी कार्यकर्ताओं को सड़क पर सक्रिय दिखाया और अपनी ताकत का प्रदर्शन किया।

यह संदेश दिया गया कि प्रधानमंत्री और उनकी परिवार की गरिमा के लिए पार्टी आक्रामक रुख अपनाए हुए है।

2. नुकसान और आलोचना:

वायरल वीडियो ने बंद के औचित्य को ही सवालों के घेरे में ला दिया।

ज़बरदस्ती और दुर्व्यवहार ने आम जनता की सहानुभूति कमाने के बजाय नाराज़गी बढ़ाई।

प्रशासन की निष्क्रियता ने इसे और विवादास्पद बना दिया।

3. भविष्य के लिए संकेत:

इस बंद ने यह दिखा दिया कि बिहार में राजनीतिक आंदोलन अब भी सड़क और टकराव की राजनीति पर टिके हुए हैं।

विपक्ष को सत्ता पक्ष पर हमला करने का ठोस मुद्दा मिला है।

प्रशासन की भूमिका पर भी सवाल उठते रहेंगे, खासकर चुनावी वर्ष में।

बिहार बंद का असली सवाल यह नहीं है कि यह सफल रहा या असफल, बल्कि यह है कि विरोध के नाम पर आम नागरिकों के अधिकारों का कितना हनन हुआ।

प्रधानमंत्री की मां के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी निंदनीय है, लेकिन इस निंदा को जन असु

विधा और प्रशासन की मौन स्वीकृति के सहारे करना लोकतंत्र की मर्यादा पर प्रश्नचिह्न है।

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