उत्तर प्रदेश के कौशांबी ज़िले में हाल ही में आयोजित एक दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम ने सूचना का अधिकार (RTI) और जनहित गारंटी अधिनियम पर गंभीर विमर्श को नई दिशा दी। एनआईसी सभागार में नोडल अधिकारी विपिन कुमार गंगवार ने जनपद स्तरीय अधिकारियों को अधिनियम-2011 और सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 से जुड़े प्रावधानों की विस्तृत जानकारी दी।
उन्होंने स्पष्ट कहा कि –
जनहित गारंटी अधिनियम के तहत प्रत्येक कार्यालय को समयबद्ध सेवाएं प्रदान करनी होंगी।
पदाभिहित अधिकारी के आदेश के खिलाफ 30 कार्य दिवस में प्रथम अपील और उसके बाद 60 कार्य दिवस में द्वितीय अपील का अधिकार है।
प्रत्येक कार्यालय के बाहर बोर्ड लगाना अनिवार्य है जिसमें पदाभिहित अधिकारी और अपीलीय अधिकारियों का पूरा विवरण, फोन नंबर और सेवाओं की समय सीमा अंकित हो।
सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत आवेदक को 30 दिनों के भीतर सूचना उपलब्ध कराना अनिवार्य है।
यदि अधिकारी देरी करते हैं, तो अर्थदंड की राशि आवेदक को प्रतिपूर्ति के रूप में दी जा सकती है।
बिहार में स्थिति पूरी तरह उलट
जहाँ उत्तर प्रदेश में कानून को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है, वहीं बिहार में सूचना का अधिकार कानून की स्थिति चिंताजनक है।
RTI आवेदनों पर लापरवाही: अधिकांश विभाग और अधिकारी समय पर सूचना उपलब्ध नहीं कराते।
प्रथम अपील पर कोई असर नहीं: अपीलीय अधिकारियों से भी समाधानकारक जवाब नहीं मिलता।
कानून की उपयोगिता पर सवाल: जिस कानून को आम जनता की शक्ति और पारदर्शिता का माध्यम माना गया था, उसकी प्रासंगिकता बिहार में कमज़ोर होती दिख रही है।
बोर्ड और सूचना सार्वजनिक नहीं: अधिकांश सरकारी दफ़्तरों में आज भी अधिनियम के अनुसार अनिवार्य बोर्ड और अधिकारियों की जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है।
विशेषज्ञों की राय
पारदर्शिता के पैरोकार मानते हैं कि बिहार सरकार को उत्तर प्रदेश की तर्ज़ पर अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण और कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिए। यदि विभागीय अधिकारी जवाबदेह नहीं बनाए गए तो सूचना का अधिकार कानून जनता के लिए सिर्फ़ काग़ज़ी अधिकार बनकर रह जाएगा।
➡️ सवाल यही है कि क्या बिहार में RTI केवल नाम का कानून बनकर रह गया है?