Saturday, September 13, 2025
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न घर के रहे, न घाट के : सूर्यगढ़ा का ‘राजनीतिक आतंक’

बिहार की राजनीति में दल बदलना कोई नया खेल नहीं है। यहां विधायक अक्सर उस पंछी की तरह होते हैं जो डाल बदलकर सोचता है कि फल मीठा मिलेगा, परंतु कई बार डाल ही सूखी निकल जाती है। सूर्यगढ़ा के बाहुबलीबाहुबली और पाँच बार के विधायक प्रहलाद यादव का ताज़ा किस्सा भी कुछ ऐसा ही है।

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सत्ता का स्वाद और ‘गुप्त सलाहकार

कहा जाता है कि प्रहलाद यादव अपने ऊपर चल रहे मुकदमे और संभावित जेल यात्रा से डरकर भाजपा नेता और उपमुख्यमंत्री विजय सिन्हा की सलाह पर सत्ता पक्ष की गोद में जा बैठे। सोचा होगा कि इस कदम से राजनीति की सीढ़ी और लंबी हो जाएगी, पर सीढ़ी चढ़ने से पहले ही जमीन खिसक गई।

सूर्यगढ़ा का आतंक उम्मीदवार नहीं होगा

केंद्रीय मंत्री ललन बाबू का बयान मानो उनके लिए राजनैतिक शास्त्र का श्लोक बन गया—

सूर्यगढ़ा का आतंक जदयू का उम्मीदवार नहीं होगा।

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अब भला जब आपके नाम के आगे ‘आतंक’ शब्द ही जुड़ जाए तो पार्टी वाले आपको दुलार से गले लगाएंगे या फिर दूरी बनाकर चलेंगे? ललन बाबू के इस एक वाक्य ने साफ कर दिया कि एनडीए में उनका टिकट का सपना वही

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राजद का अधखुला दरवाज़ा

सदन में विश्वास मत के दौरान तेजस्वी यादव का बयान उनके लिए जीवनदान हो सकता है।उस वक्त तेजस्वी यादव ने प्रहलाद यादव के लंबे समय तक राजद से संबंध को याद करते हुए चेताया था कि

प्रहलाद बाबू आप साजिश के शिकार हुए हैं, ई लोग आपका साथ नहीं देगा, संकट में हम ही आपके साथ खड़े होंगे।”

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यानि ‘लालटेन’ ने पूरी तरह बुझने से पहले एक हल्की टिमटिमाहट दिखा दी। यही कारण है कि अब चर्चाएं हैं कि एनडीए से निराश यादव की नाव फिर से राजद की धारा में बह सकती है।

जनता का तंज

लेकिन असली कहानी जनता के बीच है। गाँव-गाँव चौपालों में लोग हंसते हुए कह रहे हैं—

“देखा, सत्ता के लोभ में पाला बदले थे, अब हालत है कि न घर के रहे, न घाट के।”

राजनीति में जनता सब देखती है—कौन वफादार रहा, कौन बिकाऊ निकला और किसने अपने क्षेत्र की आवाज़ बनने की जगह अपनी जेब का हिसाब लगाया।

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बिहार की राजनीति में गद्दारी शायद तुरत-फुरत का फायदा दिला दे, लेकिन लंबी दौड़ का घोड़ा वही होता है जो किसी एक खेमे में टिककर जनता का भरोसा जीतता है। प्रहलाद यादव आज जिस दुविधा में हैं, उसका कारण कोई और नहीं बल्कि उनकी खुद की ‘पाला बदल राजनीति’ है।

अब सवाल यही है—अगले चुनाव में वे किस पार्टी के बैनर तले उतरेंगे? और जनता उन्हें किस नजर से देखेगी?

फिलहाल तो उनकी हालत वही है—

“न घर के रहे, न घाट के।”

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