बिहार को जो भी राजनीतिक पार्टी शराबबंदी का विरोध करके अगले तीन-चार महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में उतरने के लिए सोच रही है, वह बिल्कुल आत्मघाती निर्णय है और इससे यह साफ हो जाता है कि उस पार्टी की सोच बिहार को आगे लाना नहीं है, बल्कि बिहार को धरातल में ले जाने वाला यह निर्णय है।
राज्य में मुख्य रूप से जनसुराज के प्रमुख प्रशांत किशोर शुरुआत से ही शराबबंदी को लेकर नीतीश सरकार की आलोचना करते रहे हैं। वे यह मानते हैं कि शराबबंदी जैसे कानून को लागू करने की प्रक्रिया में कई खामियां हैं। और इस कानून से सरकार को करोड़ अर्बन का राजस्व का घाटा हो रहा है।
यह आलोचना व्यवस्था की हो सकती है, लेकिन शराबबंदी की मूल भावना के विरोध में खड़ा होना, जनता की सामाजिक चेतना के विरुद्ध जाना है।
राज्य के प्रमुख विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव भी अनेक मंचों से बोलते हुए दिखे हैं कि अगर आम लोगों का इस मुद्दे पर मुझे समर्थन मिला तो मैं अपनी सरकार आने पर बिहार से शराब बंदी का कानून हटा लूंगा।
बिहार में शराबबंदी लागू होने के बाद पिछले १० वर्षों में जिस तरह का सामाजिक वातावरण बना है, वह पूरे देश के लिए एक उदाहरण हो सकता है। ग्रामीण इलाकों में महिलाएं, जो पहले शराब पीने वाले पतियों की हिंसा सहती थीं, आज खुद पंचायत स्तर पर इसके खिलाफ आवाज उठा रही हैं।
बिहार के युवाओं में शराबबंदी का सबसे ज्यादा असर पड़ा है। देशभर की युवाओं के तुलना में शराब या अन्य नशे के सेवन में बिहार के युवाओं का प्रतिशत नगण्य होता जा रहा है। पहले जहां चाय की दुकानों तक पर युवाओं में शराब पीने की बातें होती थीं, अब वहां प्रतियोगिता परीक्षा, नौकरी और स्किल डिवेलपमेंट पर चर्चाएं होती हैं। यह बदलाव अचानक नहीं हुआ है — यह शराबबंदी की नीति और उसकी निरंतरता का परिणाम है।
शराब पी कर अपराधों में कमी के आँकड़े भी शराबबंदी के बाद काफी उत्साहजनक रहे हैं। सड़क दुर्घटनाओं में कमी आई है। महिलाओं के विरुद्ध अपराध में गिरावट दर्ज की गई है।
आज पटना जैसे शहर में एक आम नागरिक कानून के पालन को लेकर पहले से अधिक सजग हो चुका है। लोग हेलमेट पहनकर चलते हैं, गाड़ी के कागजात लेकर ही घर से बाहर निकलते हैं। शराबबंदी ने सिर्फ एक नशे को नहीं रोका, उसने पूरे समाज को “कानून के प्रति संवेदनशील” बनाया है।
इसलिए यह कहना कि शराबबंदी फेल हो गई या इससे जनता परेशान है — एक सीमित, राजनीतिक और स्वार्थपूर्ण सोच है। हां, यह सच है कि कुछ लोगों इसका दुरुपयोग करते होंगे, अवैध शराब की तस्करी बेचना, लेकिन ऐसे उदाहरण हर कानून में होते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि कानून को खत्म कर देना चाहिए।
शराबबंदी को लेकर जनता की सोच बिल्कुल साफ है — यह समाज को मजबूत बनाता है। इसे हटाने की बात करने वाली कोई भी पार्टी यह साबित कर देगी कि वह बिहार के भविष्य से ज्यादा, अपने स्वार्थ के लिए तात्कालिक राजनीतिक लाभ की चिंता कर रही है।