मनोज कश्यप
बिहार सरकार ने किसानों के लिए एक बार फिर से “प्रोत्साहन” की घोेषणा की है। योजना का नाम है – प्रधानमंत्री राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (2025-26), जिसके अंतर्गत किसानों को अपने खेतों में पक्का श्रेणिंग फ्लोर (Pakka Grading Floor) बनाने के लिए 1,26,200 रुपये प्रति यूनिट की लागत पर 50 प्रतिशत तक अनुदान देने की बात कही जा रही है।
पर जमीन पर तस्वीर कुछ और ही है।
“50 प्रतिशत” का जुमला, असल में सिर्फ 40%
सरकारी फाइलों में 50% अनुदान के वादे के पीछे जो असल हकीकत छिपी है, वो यह है कि अधिकतम ₹50,000 ही किसानों को मिलेंगे। यानी वास्तविक अनुदान 40 प्रतिशत से भी कम।
बाकी खर्च? किसान खुद उठाए, चाहे उसके पास साधन हों या न हों।
वेदन नहीं, प्रक्रिया की परीक्षा है ये
इस योजना का लाभ लेने के लिए किसानों को पहले ऑनलाइन आवेदन करना होगा। फिर:
जमीन का एलपीसी/रसीद
निर्माण स्थल का जियो टैगिंग फोटो
फिर लॉटरी सिस्टम से चयन
फिर निर्माण
फिर विभागीय सत्यापन
और अंत में अगर सब कुछ “नियमों के अनुरूप” पाया गया, तो ₹50,000 की राहत।
वरना?
“आपका आवेदन रद्द। अगला प्रतीक्षारत किसान तैयार है।”
योजना या एक और प्रहसन?
बिहार के किसी भी ब्लॉक में अगर 20-30 से अधिक समृद्ध किसान होंगे भी, तो वे पहले से ही थ्रेशिंग मशीन, टेंट, गोदाम जैसी सुविधाओं से लैस हैं। उन्हें इस योजना की जरूरत नहीं।
वहीं, छोटे किसान जो असली हकदार हैं, वे इस पूरी नौकरशाही और कागजी प्रक्रिया के बोझ से पहले ही घबराए हुए हैं। और इसी ‘डर’ की खिड़की से प्रवेश करते हैं – ब्लॉक स्तर के दलाल और विभागीय मित्रगण।
ऐसे “बिचौलिये” किसानों से पहले फोटो, फिर कागज, फिर निर्माण, और अंत में अनुदान का हिस्सा तक खा जाते हैं।
फसल गई, योजना आई – टाइमिंग पर भी सवाल
यह योजना तब लाई जा रही है जब मार्च-अप्रैल में फसल कटाई हो चुकी है।
अब फ्लोर बनाएं तो किसलिए?
कई किसान सवाल कर रहे हैं – “क्या ये योजना किसानों के लिए है, या चुनाव से पहले किसी के वोट बैंक निर्माण फ्लोर की तैयारी?”
सरकार को चाहिए था…
1. योजना फरवरी या मार्च में लागू करनी चाहिए थी।
2. छोटे किसानों को समूह में एक फ्लोर बनाने की सुविधा देनी चाहिए थी।
3. बिचौलियों को रोकने के लिए ऑनलाइन सत्यापन के साथ मोबाइल निगरानी प्रणाली लानी चाहिए थी।
4. प्रक्रिया को इतना सरल बनाना चाहिए था कि किसान खुद आवेदन कर सके।
किसानों के नाम पर दलालों का विकास
कृषि योजनाएं बनती हैं, घोषणाएं होती हैं, प्रेस कॉन्फ्रेंस होती हैं — पर अंत में किसान रह जाता है वहीं, अपने खेत के कोने में तिरपाल बिछाकर, और सरकार झूलती रहती है अनुदान और असली लाभार्थी के बीच की रस्सी पर।
बिहार सरकार को ये तय करना होगा कि वो सच में किसानों को सशक्त करना चाहती है, या किसानों के नाम पर योजनाओं की ब्रांडिंग और राजनीतिक पोषण।