बिहार में औद्योगीकरण को लेकर दशकों से योजनाएं बनती रही हैं, घोषणाएं होती रही हैं और निवेश के वादे भी किए गए हैं। लेकिन जब बात धरातल पर बदलाव की आती है, तो तस्वीर एकदम अलग नजर आती है। सरकारी फाइलों में चमचमाती औद्योगिक नीतियां और जमीनी स्तर पर फैक्ट्रियों की सूनी जमीन — यह विरोधाभास बिहार के औद्योगिक भविष्य पर बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
नीतियों की चमक-दमक
बिहार सरकार ने 2023 में “औद्योगिक निवेश प्रोत्साहन नीति (BIIPP-2023)” लागू की, जिसमें फूड प्रोसेसिंग, टेक्सटाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स, IT और स्टार्टअप सेक्टर को प्राथमिकता दी गई है। BIADA के माध्यम से पटना, बेगूसराय, मुजफ्फरपुर, गया और दरभंगा सहित 50 से अधिक औद्योगिक क्षेत्रों का विकास किया गया है।
“सिंगल विंडो क्लीयरेंस”, टैक्स रियायतें, सब्सिडी, जमीन आवंटन जैसे प्रावधानों के साथ सरकार दावा करती है कि बिहार निवेश के लिए अब ‘तैयार’ है। हर साल बिहार इन्वेस्टर्स समिट में हजारों करोड़ रुपये के निवेश प्रस्तावों (MoUs) पर हस्ताक्षर भी होते हैं।
जमीनी सच्चाई: खाली मैदान, बंद यूनिटें
हालांकि, जब इन दावों की पड़ताल जमीनी स्तर पर की जाती है, तो नतीजे निराशाजनक हैं:
बिहटा, फतुहा, हाजीपुर, दरभंगा के औद्योगिक क्षेत्रों में दर्जनों प्लॉट खाली पड़े हैं या वर्षों से लीज़ लेने के बाद भी उनका उपयोग नहीं हुआ है।
2022 में 30,000 करोड़ से अधिक के निवेश प्रस्ताव हुए, पर 10% से भी कम पर काम शुरू हुआ।
बड़ी कंपनियां जैसे Tata, Adani, Reliance अब भी बिहार से दूर हैं।
एक स्थानीय उद्यमी बताते हैं, “यहां की सबसे बड़ी दिक्कत है लॉजिस्टिक्स, कानून व्यवस्था और जमीन से जुड़े विवाद। ऊपर से अधिकारियों के स्तर पर भ्रष्टाचार और स्थानीय दबाव से भी परेशान होना पड़ता है।”
रोजगार और पलायन का संकट
बिहार में भारी उद्योग न के बराबर हैं। छोटे स्तर पर चूड़ा मिल, ईंट-भट्ठा, फूड प्रोसेसिंग यूनिटें ही हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि हर साल लाखों युवा रोजगार की तलाश में बाहर (दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र) पलायन करते हैं।
प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से आधी (₹52,000) और MSME की हालत भी खराब — इससे राज्य की आर्थिक तस्वीर और धुंधली होती है।
इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास की धीमी रफ्तार
हालांकि गंगा एक्सप्रेसवे, बिहटा एयरपोर्ट, और दरभंगा-हाजीपुर जैसे क्षेत्रों में कुछ प्रोजेक्ट्स पर काम चल रहा है, लेकिन जमीन अधिग्रहण, बिजली, पानी और परिवहन की असुविधाएं निवेशकों को अब भी डराती हैं।
साथ ही, सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क, IT हब, या इलेक्ट्रॉनिक्स क्लस्टर जैसे बड़े आइडिया केवल घोषणाओं तक सीमित हैं।
विकास का असंतुलन और रणनीतिक असफलता
विकास की योजनाएं अक्सर राजनीतिक विज्ञापनों तक सिमट जाती हैं, जबकि नीतिगत अमल में गंभीर कमियां होती हैं:
नीतियां बिना स्थानीय संसाधनों और श्रमशक्ति का उपयोग किए बनाई जाती हैं।
सरकार “Ease of Doing Business” की बात तो करती है, पर हकीकत में Doing Business मुश्किल बना रहता है।
निवेशकों के लिए कोई भरोसेमंद “post-investment support system” नहीं है।
बिहार में औद्योगीकरण की कहानी एक “नीति बनाम नीयत” का मामला प्रतीत होती है। जहां योजनाएं बार-बार बदली जाती हैं, निवेशक बुलाए जाते हैं, लेकिन उन्हें टिकने के लिए ज़रूरी माहौल नहीं दिया जाता।
यदि सरकार सचमुच राज्य को आत्मनिर्भर और पलायन-मुक्त बनाना चाहती है, तो उसे नीतियों की सजावट नहीं, बल्कि जमीन पर फैक्ट्री की मशीनें चलाने की रणनीति पर ध्यान देना होगा।