Sunday, September 14, 2025
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जाती – जाती करके नेता त उजिया गेलन, जनता मुंहतक़वा

अजय कुमार 

बिहार की राजनीति का सबसे बड़ा आधार जातीय समीकरण रहा है। हर चुनाव में मतदाता जातिगत पहचान के आधार पर अपने-अपने नेताओं को चुनते आए हैं। “ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, यादव, कुर्मी-कोयरी, दलित-महादलित”—हर वर्ग ने अपने लिए नेता तो खड़ा किया, लेकिन प्रश्न यह है कि इन नेताओं ने वास्तव में अपनी जाति और समाज का उत्थान किया या केवल अपनी व्यक्तिगत सत्ता और संपत्ति का विस्तार?

बीते दशकों का अनुभव बताता है कि जातिगत नेताओं ने जनता के सपनों और उम्मीदों का उपयोग केवल सत्ता की सीढ़ी चढ़ने के लिए किया। हवाई चप्पल और साइकिल से राजनीति शुरू करने वाले कई नेता आज आलीशान बंगलों और करोड़ों की गाड़ियों में बैठकर नए जमींदार और सामंत बन चुके हैं। जनता की बदहाली और पिछड़ापन जस का तस है, लेकिन नेताओं की हैसियत राजाओं जैसी हो गई है।

चुनाव दर चुनाव जनता अपनी जातीय निष्ठा निभाते हुए वोट देती रही और नेता सत्ता व समृद्धि के शिखर पर पहुँचते रहे। यही कारण है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आधारभूत संरचना जैसे मुद्दे हाशिए पर चले गए। विकास की गति थमी रही और जनता जातीय विभाजन के बोझ तले दबती रही।

विशेषज्ञ मानते हैं कि यह प्रवृत्ति लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत है। लोकतंत्र का अर्थ केवल सत्ता परिवर्तन नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय भी है। यदि जनता बार-बार जातीय आधार पर मतदान करती रही तो आने वाले वर्षों में भी हालात नहीं बदलेंगे। असली बदलाव तभी संभव है जब मतदाता जातीय सोच से ऊपर उठकर विकास, जवाबदेही और सुशासन के आधार पर नेताओं का चयन करें।

बिहार के राजनीतिक परिदृश्य का यह कटु सत्य है कि—

“जाती-जाती करके नेता त उजिया गैलन, जनता मुंहतक़वा।”

यानी जाति की राजनीति ने नेताओं को रोशन कर दिया, पर आम जनता अब भी अंधेरे में है।

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