पटना
बिहार की राजनीति में इन दिनों कांग्रेस पार्टी और निर्वाचन विभाग आमने-सामने नज़र आ रहे हैं। कांग्रेस के प्रदेश पदाधिकारियों और जिला अध्यक्षों ने आरोप लगाया है कि राज्य में लगभग 89 लाख मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से काट दिए गए हैं। इसके विरोध में उन्होंने जिला स्तर पर नामों की सूची सौंपते हुए इन्हें दोबारा मतदाता सूची में शामिल करने की मांग की।
लेकिन बिहार चुनाव आयोग ने कांग्रेस की इस पहल को सीधे तौर पर अवैध और गैर-प्रक्रियात्मक करार दिया है। आयोग ने स्पष्ट किया कि मतदाता सूची से नाम जोड़ने या हटाने की प्रक्रिया सख़्ती से नियमावली और फॉर्म-7 के आधार पर ही होती है, न कि राजनीतिक दलों के सामूहिक पत्रों या दबाव से।
कांग्रेस की रणनीति पर सवाल
विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस का यह कदम उसकी परंपरागत ‘तानाशाही सोच’ और जनता से दूरी को एक बार फिर उजागर करता है।
अगर किसी मतदाता का नाम वाकई गलत तरीके से काटा गया है तो इसके लिए फॉर्म-7 या अन्य निर्धारित आवेदन प्रक्रिया उपलब्ध है।
लेकिन कांग्रेस ने सीधे 89 लाख नामों का हवाला देकर चुनाव आयोग पर दबाव बनाने की कोशिश की।
इसमें न तो आवश्यक प्रमाण पत्र संलग्न थे और न ही निर्वाचन नियमावली का पालन किया गया।
अदालत और आयोग का स्टैंड
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही (22 अगस्त 2025) के अंतरिम आदेश में कहा है कि मतदाता सूची में किसी भी बदलाव को सिर्फ कानूनी प्रक्रिया और सही आवेदन के आधार पर ही माना जाएगा।
वहीं निर्वाचन विभाग ने यह साफ किया कि राजनीतिक दलों की ओर से इस तरह की बड़े पैमाने पर हल्ला-मचाओ याचिकाएं सिर्फ जनता को गुमराह करने की कोशिश हैं।
कांग्रेस की पुरानी आदत?
यह घटना कांग्रेस की उस राजनीतिक कार्यशैली की ओर इशारा करती है जिसमें पार्टी जमीनी स्तर पर कार्य करने से बचती है और महज़ आरोप-प्रत्यारोप के जरिए चर्चा में बने रहना चाहती है।
जहां अन्य दल अपने बूथ-लेवल एजेंटों और कार्यकर्ताओं के जरिए लोगों के नाम जुड़वाने की प्रक्रिया में भागीदारी निभाते हैं, वहीं कांग्रेस का रुख सिर्फ़ ‘हल्ला करो और चुनाव आयोग को बदनाम करो’ तक सीमित दिखता है।
कांग्रेस द्वारा 89 लाख मतदाताओं के नाम काटे जाने का मुद्दा उठाकर चुनाव आयोग पर दबाव बनाने की रणनीति जनता के बीच गंभीरता की बजाय नकारात्मक राजनीति का संदेश देती है। आयोग और अदालत दोनों ने साफ़ कर दिया है कि बिना उचित आवेदन और प्रमाण पत्र के इस तरह की मांगों को मान्यता नहीं दी जाएगी।
यानी साफ है कि कांग्रेस आज भी अपने पुराने तानाशाही रवैये और शॉर्टकट राजनीति से बाहर निकलने को तैयार नहीं है।