Saturday, September 13, 2025
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भाजपा की चाल-चरित्र-चेहरा थ्योरी ढही: बिहार में व्यंग्य का विषय बनी पार्टी

अजय कुमार

बिहार की राजनीति में भाजपा इस समय ऐसी स्थिति में है कि न निगलते बन रहा है, न उगलते।
जातीय समीकरण के नाम पर सत्ता की कुर्सी बचाने की जुगाड़ ने पार्टी को ऐसे चक्रव्यूह में फंसा दिया है जहाँ नेतृत्व की साख, चेहरा और तथाकथित ईमानदारी—सब सवालों के घेरे में है।

तीन चेहरे, तीन विवाद, पार्टी की बेबसी

बिहार भाजपा का नेतृत्व आज तीन बड़े चेहरों पर टिका है—दिलीप जयसवाल, सम्राट चौधरी और जीवेश मिश्रा।
लेकिन तीनों पर ऐसे-ऐसे गंभीर आरोप हैं कि पार्टी का नारा “चाल, चरित्र और चेहरा” अब जनता के बीच मजाक बन चुका है।

1. दिलीप जयसवाल:
प्रशांत किशोर ने सबसे पहले भाजपा प्रदेश अध्यक्ष को ललकारा। आरोप लगाया कि उन्होंने अपने इलाके में सिख समुदाय के मेडिकल कॉलेज को हड़पने और इस पूरे विवाद में एक कार्यकर्ता की हत्या तक हो गई।
इतना गंभीर आरोप, और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की तरफ से बस सफाई—“नहीं-नहीं, ऐसा कुछ नहीं है”।
जवाब नहीं, बस बहाना। यही है भाजपा की नेतृत्व शैली।

2. सम्राट चौधरी:
पीके का अगला निशाना उपमुख्यमंत्री। आरोप—25 लाख की रिश्वत। आरोप यह कि उन्होंने अपने ही पार्टी प्रमुख से मोटी रकम ली और बदले में मेडिकल कॉलेज को मान्यता दिला दी।
सम्राट चौधरी का जवाब सुनिए—“यह रिश्वत नहीं, कर्ज था।”
कर्ज भी इतना कि अकाउंट में नहीं लिया, पिता के अकाउंट में लिया। और जब लौटा दिया, तो उसका प्रमाण क्यों नहीं?
यानी सवाल ज़्यादा, जवाब झोल-झाल वाले।

3. जीवेश मिश्रा:
शहरी विकास मंत्री पर तो सीधे “सजायाफ्ता” होने का आरोप। राजस्थान की अदालत से सज़ा पा चुके मंत्री को भाजपा ने बिहार की जनता पर थोप दिया। और ऊपर से पार्टी नेतृत्व नैतिकता की दुहाई भी देता है।
यानी एक तरफ ‘संस्कार और सिद्धांत’ की राजनीति, और दूसरी तरफ दागदार चेहरे का प्रमोशन।

भाजपा की चुप्पी = स्वीकारोक्ति?

तीनों नेताओं पर इतने गंभीर आरोप, लेकिन पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व चुप।

क्या भाजपा के पास इन आरोपों का जवाब नहीं है, या फिर सत्ता के लालच में सब कुछ निगलने की मजबूरी है?
जनता अब यह सवाल करने लगी है कि भाजपा की “ईमानदारी की राजनीति” सिर्फ टीवी स्टूडियो और चुनावी भाषणों तक ही सीमित है क्या?

प्रशांत किशोर का तीर—सटीक और धारदार

प्रशांत किशोर ने भाजपा पर सबसे बड़ा हमला यह कहकर बोला कि—“भाजपा बिहार को मजदूर फैक्ट्री बनाए रखना चाहती है।”
उनका तर्क साफ है—देश के प्रधानमंत्री चाहें तो बिहार में उद्योगपतियों का निवेश ला सकते हैं। लेकिन भाजपा के लिए बिहार सिर्फ मजदूरों की फैक्ट्री और वोटबैंक है, विकास नहीं।
यानी सत्ता की राजनीति = जातीय समीकरण + भ्रष्टाचार से समझौता।

भाजपा आज बिहार में जिस स्थिति में है, वह उसकी अपनी बनाई हुई है।
जातीय गणित में उलझी, नेताओं के भ्रष्टाचार में फंसी और जवाब देने की बजाय चुप्पी साधे भाजपा अब जनता की नज़र में “गंभीर विकल्प” नहीं बल्कि “व्यंग्य का विषय” बनती जा रही है।

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