Monday, July 28, 2025
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पटना में अपराधियों को खुली छूट? गोपाल खे़मका हत्याकांड से वेटरनरी छात्र तक – कानून व्यवस्था पर बड़ा सवाल

बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मी के बीच राजधानी पटना से एक के बाद एक चार जघन्य हत्याओं की खबरों ने आम जनजीवन में भय का माहौल बना दिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो पटना की सड़कों पर अपराधियों को रिवॉल्वर लेकर घूमने की खुली छूट मिल गई हो। कहीं कारोबारी मारे जा रहे हैं, तो कहीं स्कूल संचालकों को गोली मारी जा रही है। बालू माफिया को दिनदहाड़े निपटाया जा रहा है और छात्रों के बीच क्रिकेट मैच जैसे विवाद में गोलियां चल रही हैं।

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इन घटनाओं ने राजधानी के ‘सुरक्षा कवच’ की पोल खोल दी है और साथ ही नीतीश सरकार की अब तक की सबसे मजबूत मानी जाने वाली उपलब्धि — कानून व्यवस्था — को सवालों के घेरे में ला दिया है।

चार बड़ी घटनाएँ जिन्होंने पटना को हिला दिया:

1. गोपाल खेमका हत्याकांड (4 जुलाई):
बिहार के चर्चित व्यवसायी और बीजेपी से जुड़े गोपाल खेमका की पटना के गांधी मैदान इलाके में गोली मारकर हत्या कर दी गई। यह हमला उस समय हुआ जब वे क्लब से लौट रहे थे। पुलिस ने महज़ 3 दिनों में हत्याकांड में शूटर उमेश यादव सहित मास्टरमाइंड अशोक साह को गिरफ्तार कर लिया, जबकि हथियार सप्लायर राजा को मुठभेड़ में मार गिराया गया।

2. स्कूल संचालक अजीत कुमार की हत्या (7 जुलाई):
दानापुर के सगुना–खगौल मार्ग पर स्थित आरएन सिन्हा पब्लिक स्कूल के संचालक अजीत कुमार की गोली मारकर हत्या कर दी गई। वे अपने पिता को खाना देने स्कूटी से जा रहे थे जब अज्ञात हमलावरों ने उन्हें सिर में गोली मारी।

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3. बालू कारोबारी रमाकांत यादव की हत्या (10 जुलाई):
पटना ग्रामीण के धाना गांव में अपने घर के बगीचे में टहलते समय रमाकांत यादव की छाती में गोली मारकर हत्या कर दी गई। परिवार का आरोप है कि 15 साल पहले उनके भाई की भी हत्या हुई थी, और इस हत्या में भी रंजिश की आशंका है।

4. वेटरनरी कॉलेज में छात्र को गोली (10 जुलाई):
पटना वेटरनरी कॉलेज में दो छात्र गुटों के बीच हुए क्रिकेट विवाद ने हिंसक रूप ले लिया। इस दौरान मयंक नामक छात्र के हाथ में गोली लगी। यह घटना दर्शाती है कि अब अपराध केवल सुनियोजित हत्या तक सीमित नहीं, बल्कि साधारण झगड़ों में भी गोलियां चल रही हैं।

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क्या केवल पुलिस जिम्मेदार है?

इन हत्याओं के बाद पुलिस की त्वरित कार्रवाइयों की सराहना तो हो रही है, लेकिन ये सवाल भी उठ रहे हैं कि आखिर अपराध होने से पहले ऐसी घटनाओं को रोका क्यों नहीं जा रहा?

दरअसल, यह समझना जरूरी है कि पुलिस भगवान नहीं है कि हर अपराध से पहले उसे उसका पूर्वाभास हो जाए। पुलिस की गुप्तचर तंत्र और स्थानीय इंटेलिजेंस की भूमिका जरूर सवालों के घेरे में है। लेकिन अपराध की जड़ में कई सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक विफलताएं भी छिपी हुई हैं।

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2005 से अब तक: बदलता ‘सिस्टम’

वर्ष 2005 में जब नीतीश कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बने थे, तब बिहार में कानून-व्यवस्था की स्थिति भयावह थी। उनके पहले कार्यकाल ने यह विश्वास दिलाया कि राज्य में ‘सुशासन’ संभव है। लेकिन दो दशक बाद यही शासन अब थका-थका सा लग रहा है।

कभी जिस पुलिस और प्रशासन को देखकर अपराधी भागते थे, आज वही सिस्टम कई मामलों में मूकदर्शक बनता जा रहा है। न तो वही सख्ती, न वही ऊर्जा, और न ही अपराध पर उसी तरह की ज़ीरो टॉलरेंस नीति। अब जब विधानसभा चुनाव नजदीक हैं, सरकार की प्राथमिकता अपराध नियंत्रण नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रबंधन दिख रहा है।

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चुनावी समीकरणों में उलझी ‘सुरक्षा’

अपराध के मामलों को राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है। विपक्षी दलों को सत्ता पर हमला करने का मौका मिल गया है, जबकि सत्ताधारी दल अब भी गोपाल खेमका केस में गिरफ्तारी को अपनी उपलब्धि मानकर वाहवाही लूट रहे हैं। पर सवाल ये है कि जब तक हत्या हो चुकी हो, तब तक कार्रवाई का औचित्य क्या?

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पटना खतरे के मुहाने पर?

इन लगातार हत्याओं ने राजधानी पटना को अपराध के नए दौर में धकेल दिया है। अगर यही हाल रहा, तो विधानसभा चुनाव के दौरान यह मुद्दा लोगों के गुस्से और मत परिवर्तन का कारण बन सकता है।

बिहार की जनता अब इस सवाल का जवाब चाहती है:

“क्या सरकार अब भी अपनी सबसे बड़ी पूंजी — कानून व्यवस्था — को संभालने में सक्षम है?”

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